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merii nazar se na ho duur ek pal ke liye - - Ghulam Ali

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कल तक तो आश्ना थे मगर आज ग़ैर हो
दो दिन में ये मिज़ाज हैं आगे की ख़ैर हो

मेरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिये
तेरा वुजूद है लाज़िम मेरी ग़ज़ल के लिये

कहाँ से ढूँढ के लाऊँ चराग़ से वो बदन
तरस गई हैं निगाहें कँवल कँवल के लिये

एक ऐसा तजुर्बा मुझको हुआ है आज की रात
बचा के धड़कनें रख ली हैं मैंने कल के लिये

सदा जिये ये मेरा शहर-ए-बेमिसाल जहाँ
हज़ार झोपड़े गिरते हैं इक महल के लिये

'क़तील' ज़ख़्म सहूँ और मुस्कुराता रहूँ
बने हैं दायरे क्या क्या मेरे अमल के लिये

किसी किसी के नसीबों में इश्क़ लिक्खा है
हर एक दिमाग़ भला कब है इस ख़लल के लिये

हुई न जुर्रत-ए-गुफ़्तार तो सबब ये था
मिले न लफ़्ज़ तेरे हुस्न के बदल के लिये

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