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zulf bikharaatii chalii aa_ii ho

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ज़ुल्फ़ बिखराती चली आई हो
ऐ जी सोचो तो ज़रा बदली का क्या होगा

आँख शराबी तेरी उसमें गुलाबी डोरे
शर्म के मारे दहके गाल ये गोरे-गोरे
आग भड़काती चली आई हो
ऐ जी सोचो तो ज़रा शोलों का क्या होगा
ज़ुल्फ़ बिखराती ...

ले बैठी हैं हमको ये अनजान अदाएँ
छोड़ के दर को तेरे बोल कहाँ हम जाएँ
जाल फैलाती चली आई हो
ऐ जी सोचो तो ज़रा पंछी का क्या होगा
ज़ुल्फ़ बिखराती ...

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