tere hote hu_e mahafil me.n jalaate hai.n charaaG
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वो आये बज़्म में इतना तो 'मीर' ने देखा
फिर इसके बाद चराग़ों में रोशनी न रही
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़
अपनी महरूमी के एहसास से शर्मिंदा हैं
ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चराग़
क्या ख़बर उनको कि दामन भी भड़क उठते हैं
जो ज़माने की हवाओं से बचाते हैं चराग़
ऐसे बेदर्द हुए हम भी के अब गुलशन पर
बर्क़ गिरती है तो ज़िंदाँ में जलाते हैं चराग़
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़'
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़
