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sochaa thaa mai.nne to ai jaan merii

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कि: ( हूँ -४
सोचा था मैंने तो ऐ जान मेरी
मोतियों से भर दूँगा माँग तेरी
पर कुछ ना तुझे दे सका
एक मजबूर दिल के सिवा ) -२

हूँ -४

तड़पे दिल पलकों के पीछे कितने महल ख़ाबों के लिये -२
खुलते कभी तो महलों के दर जलते कभी अरमाँ के दिये
तू हँसती एक गुल की तरह
मैं गाता बुलबुल की तरह

हूँ -४
सोचा था मैंने तो ऐ जान मेरी
मोतियों से भर दूँगा माँग तेरी

कब चाहा पर्बत बन जाना देता है जो सदियों का पता -२
चाहूँ बस एक पल का तराना बन के किसी गुँचे की सदा
खिल जाता एक पल ही सही
धूल का फिर आँचल ही सही

हूँ -४
सोचा था मैंने तो ऐ जान मेरी
मोतियों से भर दूँगा माँग तेरी

फिर भी इस जलते सीने में अब तो यही अरमान पले -२
चाँदी के सोने के ख़ज़ाने रख दूँ तेरे क़दमों के तले
उठता है तूफ़ान उठे
लुटती है तो जान लुटे

हूँ -४

आ: आऽ
ओ जान-ए-मन तू अकेला नहीं
मैं तेरे साथ हूँ और सिर्फ़ तेरे साथ

दो: हूँ -१२

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