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shaam\-e\-Gam jab bikhar ga_ii hogii

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शाम-ए-ग़म जब बिखर गई होगी
जाने किस किस के घर गई होगी

इतनी लरज़ाँ न थी चराग़ की लौ
अपने साये से डर गई होगी

जिस तरफ़ वो सफ़र पे निकला था
सारी रौनक उधर गई होगी

मेरी यादों की धूप चाँव में
उसकी सूरत निखर गई होगी

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