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nikale the kahaa.N jaane ke liye

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निकले थे कहाँ जाने के लिये, पहुंचे है कहाँ मालूम नहीं
अब अपने भटकते क़दमों को, मंजिल का निशान मालूम नहीं

हमने भी कभी इस गुल्शन में, एक ख्वाब-ए-बहार देखा था
कब फूल झरे, कब गर्द उड़ी, कब आई खिज़ां मालूम नहीं

दिल शोला-ए-ग़म से खाक हुआ, या आग लगी अरमानों में
क्या चीज़ जली क्यूं सीने से उठा है धुआं मालूम नहीं

बरबाद वफ़ा का अफ़साना हम किसे कहें और कैसे कहें
खामोश हैं लब और दुनिया को अश्कों की ज़ुबां मालूम नहीं

Comments/Credits:

			 % Transliterator: Ravi Kant Rai (rrai@plains.nodak.edu)
% Editor: Anurag Shankar (anurag@chandra.astro.indiana.edu)
		     
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