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Kayaal\-o\-Kwaab hu_ii hai.n muhabbate.n kaisii - - Ghulam Ali

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ख़याल-ओ-ख़्वाब हुई हैं मुहब्बतें कैसी
लहू में नाच रही हैं ये वहशतें कैसी

न शब को चाँद ही अच्छा न दिन को मेहर अच्छा
ये हम पे बीत रही हैं क़ियामते कैसी

वो साथ था तो ख़ुदा भी था मेहरबाँ क्या
बिछड़ गया तो हुई अदावतें कैसी

अज़ाब जिसका तबस्सुम गज़ब है जिसकी निगाह
खिँची हुई हैं पस-ए-जाँ ये सूरतें कैसी

हवा के रुख़ पे ही रखे हुये चिराग़ हैं हम
जो बुझ गये तो हवा से शिक़ायतें कैसी

जो बे-ख़बर कोई गुज़रा तो ये सदा दी है
मैं संग-ए-राह हूँ मुझपे इनायतें कैसी

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