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kah do is raat se ke ruk jaaye

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कह दो इस रात से के रुक जाये दर्द-ए-दिल मिन्नतों से सोया है
ये वोही दर्द है जिसे लेकर लैला तड़पी थी मजनू रोया है

मैं भी इस दर्द की पुजारन हूँ ये न मिलता तो कब की मर जाती
इसके एक एक हसीन मोती को रात दिन पलकों में पिरोया है

ये वोही दर्द है जिसे ग़ालिब जज़्ब करते थे अपनी ग़ज़लों में
मीर ने जबसे इसको अपनाया दामन-ए-ज़ीस्त को भिगोया है

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