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kabhii aah lab pe machal ga_ii - - Ghulam Ali

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कभी आह लब पे मचल गई कभी अश्क़ आँख से ढल गये
वो तुम्हारे ग़म के चराग़ हैं कभी बुझ गये कभी जल गये

मैं ख़याल-ओ-ख़ाब की महफ़िलें न ब-कद्र-ए-शौक़ सजा सका
तेरी इक निगाह के साथ ही मेरे सब इरादे बदल गये

कभी रंग में कभी रूप में कभी छाँव में कभी धूप में
कहीं आफ़ताब-ए-नज़र हैं वो कहीं माहताब में ढल गये

जो फ़ना हुये ग़म-ए-इश्क़ में उन्हें ज़िंदगी का न ग़म हुआ
जो न अपनी आग में जल सके वो पराई आग में जल गये

था उन्हें भी मेरी तरह जुनूँ तो फिर उनमें मुझमें ये फ़र्क़ क्यूँ
मैं गरिफ़्त-ए-ग़म से न बच सका वो हुदूद-ए-ग़म से निकल गये

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