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ajiiz itanaa hii rakho ke jii sambhal jaaye

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अजीज़ इतना ही रखो के जी सम्भल जाये
अब इस क़दर भी न चाहो के दम निकल जाये

मुहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
के जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये

ज़हे वो दिल जो तमना-ए-ताज़ातर में रहे
ख़्हुशा वो उम्र जो ख़्वाबों में ही बहल जाये

मैं वो चराग़-ए-सर-ए-रह-गुज़ार-ए-दुनिया हूँ
जो अपनी ज़ात की तन्हाइयों में जल जाये

हर एक लम्हा यही आरज़ू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शे में भी ढल जाये

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